भाजपा के अभेद्य गढ़ 'छोटी अयोध्या' में टूटने लगी टीम
इंदौर । 30 साल से भाजपा का अभेद्य गढ़ बन चुकी चार नंबर विधानसभा को छोटी अयोध्या भी कहा जाता है। इतने सालों से गौड़ परिवार का इस विधानसभा सीट पर दबदबा रहा। इस खेमे ने काफी बेहतर टीम भी खड़ी की, लेकिन अब टीम टूटने लगी है। बूथ स्तर तक संगठनात्मक तैयारियों को अंजाम देने वाले शंकर यादव भाजपा छोड़कर कांग्रेस में चले गए। जिसकी राजनीतिक हलकों में बड़ी चर्चा है। वहीं लक्ष्मणसिंह गौड़ के साथी रहे पूर्व भाजपा नगर अध्यक्ष कैलाश शर्मा ने काफी पहले ही दूरी बना ली थी।
90 के दशक में भाजपा ने पहली बार कैलाश विजयवर्गीय को चार नंबर विधानसभा से टिकट दिया था। दूसरी बार उन्हें दो नंबर विधानसभा भेजा और चार नंबर से लक्ष्मणसिंह गौड़ को मौका दिया। गौड़ ने न केवल चुनाव जीता, बल्कि क्षेत्र में बेहतर टीम भी बनाई और लगातार चुनाव जीते। शिवराज सरकार में उन्हें शिक्षा मंत्री भी बनाया गया। एक हादसे में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी राजनीतिक विरासत को पत्नी मालिनी गौड़ ने बखूबी संभाला। गौड़ के निधन के बाद हुए विधानसभा चुनाव के पहले टीम के सिपाहसालार कैलाश शर्मा ने चार नंबर विधानसभा से टिकट मांगा। उन्होंने अपनी ताकत बताने के लिए एक बड़ी रैली भी निकाली, लेकिन संगठन ने टिकट नहीं दिया। इसके बाद गौड़ खेमे और शर्मा के बीच खाई बन गई, जो अब तक कायम है। शुरुआत से ही लक्ष्मणसिंह गौड़ की टीम का अहम हिस्सा रहे शंकर यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अधिक थी और वे काबिल भी हैं, लेकिन पार्षद से आगे नहीं बढ़ पाए। बीते कुछ समय से वे अपनी ही टीम के बीच खुद को असहज महसूस कर रह थे और कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इस बात का फायदा उठाते हुए उन्हे अपनी पार्टी में शामिल कर लिया।
चार नंबर विधानसभा सिंधी वोट बैंक भी है। शंकर लालवानी ने भी चार नंबर विधानसभा के वार्डों से ही राजनीतिक सफर शुरू किया था, लेकिन कभी गौड़ खेमे से नहीं जुड़े और लंबे समय तक चार नंबर से टिकट की मांग करते रहे। 10 साल पहले उन्हें मनचाहे वार्ड से टिकट नहीं मिला। उन्हें मुस्लिम बहुल क्षेत्र से टिकट दिया जा रहा था, उन्होंने चुनाव लड़ने से ही इन्कार कर दिया और संगठन में दखल बढ़ाई तो नगर अध्यक्ष बनने का मौका मिल गया। वर्ष 2013 में जब उन्होंने फिर टिकट मांगा तो सरकार ने आचार संहिता लगने से पहले इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बना दिया। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने फिर टिकट मांगा, लेकिन संगठन ने उनकी मांग को गंभीरता से नहीं लिया। बाद में लोकसभा चुनाव में उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया। लोकसभा के टिकट में मालिनी गौड़ भी दौड़ में थीं।