राग के इतने नजदीक जाएं कि आप और राग दोनों एक हो जाएं

राग के इतने नजदीक जाएं कि आप और राग दोनों एक हो जाएं


इंदौर। राग एक अनुभव की बात है। वह सुनाई देता है पर दिखाई नहीं देता। वास्तव में राग की संकल्पना ही अमूर्तन की अवधारणा है जिसका केवल अनुभव किया जा सकता है। गायकी के सतत रियाज और अच्छा सुनना हमें राग के नजदीक ले जाता है। इन दो प्रक्रियाओं के जरिए आप राग के इतने नजदीक जाएं कि आप और राग दोनों एक हो जाएं। जो अच्छा सुनता है वही अच्छा कलाकार बन सकता है। यह बात अनुभव की चमक और सादगी की मुस्कुराहट लिए मूर्धन्य शास्त्रीय गायिका डॉ. प्रभा अत्रे ने संगीत साधकों को कही। रविवार की रात शहर ने जहां उन्हें गायिका के रूप में सुना वहीं सोमवार की सुबह एक गुरु, पथ प्रदर्शक और खुली किताब की तरह जाना। अवसर था प्रेस क्लब में संस्था पंचम निषाद संगीत संस्थान द्वारा आयोजित गुनीजान संगीत समारोह के तहत हुए 'प्रभा संवाद' कार्यक्रम का। सवालों की लड़ियां लिए संजय पटेल बैठे थे तो उनके हर सवाल पर दिलचस्प ढंग से तर्कसंगत जवाब देती ऑफ व्हाइट कलर की साड़ी पहने प्रभा अत्रे थीं।



सवाल-जवाब के सिलसिलेवार क्रम में जब उनसे पूछा गया कि वे बंदिशों में जो शब्द पिरोती हैं क्या वे पहले पिरोए जाते हैं और बाद में मीटर के अनुरूप इधर-उधर कर लिए जाते हैं या फिर भाव के अनुरूप। तो उन्होंने बताया कि बंदिशों का काम सोच समझकर नहीं होता। सृजन के समय मन में जो भाव आते हैं उसे संजो लिया जाता है और बाद में थोड़ा बहुत करीने से उसे लगा दिया जाता है। जहां तक मेरे हिंदी के शब्दकोष समृद्घ होने की बात है तो वह हिंदी फिल्मों के जरिए ही हुआ। हिंदी फिल्मों से मैंने कई शब्द सीखे। फिल्मों में गायकी के ऑफर की बात पर उन्होंने कहा कि वे 2-3 ऑफर तो अस्वीकार भी कर चुकी थीं क्योंकि कभी उस क्षेत्र में जाने का सोचा नहीं। ऐसा नहीं कि फिल्मी गीत पसंद नहीं, मैं हर तरह का संगीत सुनती और गाती हूं यहां तक कि अरेबियन संगीत भी।



लोक संगीत की वहज से है शास्त्रीय संगीत


लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत से जुड़े सवाल पर उनका कहना था कि आज यदि शास्त्रीय संगीत जीवित है तो उसकी वजह लोक संगीत ही है। लोक संगीत की अपनी ऊर्जा है। शास्त्रीय संगीत ने लोक संगीत से बहुत कुछ लिया है। लोग फिल्म संगीत को कमतर मापते हैं पर मेरी नजर में वह भी किसी से कम नहीं। माइक पर तीन मिनट गाओ तब पता चले कि फिल्मी संगीत क्या है। हर कलाकार की अपनी एक खूबी होती है और मैं तो सभी में से कुछ न कुछ अच्छा ढूंढने की कोशिश करती रहती हूं।


10 घंटे के बराबर है 5 मिनट समझ के किया रियाज


गायन के निखार पर अपनी बात रखते हुए प्रभा अत्रे ने कहा कि संगीत के बारे में बोलना या लिखना बहुत कठिन है। यह अमूर्तन कला है और इसकी अभी परिभाषा तैयार नहीं है तो मैं कैसे समझाऊं। संगीत की अपनी भाषा है। गाना अच्छा लगना एक अलग बात है और उस गीत को अंदर से समझकर सुनना दूसरी बात। एक गायक को चाहिए कि वह गीत को अंदर से समझकर फिर गाए। 10 घंटे तक रियाज करना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि उसे समझकर 5 मिनट रियाज करना। यह 5 मिनट 10 घंटे के बराबर ही होते हैं। संगीत की समझ बढ़ाना और उसके अनुरूप रियाज करना सही प्रक्रिया है। घर घराने का अपना सौंदर्य होता है, उसकी अपनी खूबी और खामियां होती है। पर यह जवाबदारी साधक की है कि वह सही-गलत में अंतर को समझे।


शास्त्र के पहले तो कला ही आई


शास्त्रीय संगीत में किए गए खूबसूरत प्रयोगों पर जब संचालक ने सवाल किए तो प्रभा अत्रे ने बताया कि कई वरिष्ठ गायकों ने इस पर आपत्ति भी जताई। शास्त्र से पहले तो कला ही आई इसलिए कला के अनुरूप शास्त्र को बिठाना चाहिए। मेरा मानना है कि प्रस्तुति उम्दा हो तो समय का बंधन भी मायने नहीं रखता। प्रस्तुति के अनुरूप शास्त्र को भी बदलना चाहिए। वक्त के साथ बदलाव जरूरी है। यही वजह है कि मैंने तो भैरवी में भी अरेबियन संगीत की महक शामिल की। हां, पर यह जरूर है कि आप जो भी करें उसके पीछे सार्थक तथ्य हो। करीब डेढ़ घंटे तक चले सवाल-जवाब के दौर में कुछ बंदिशें भी थी और श्रोताओं की जिज्ञासा भी। आयोजन में संस्थान की छात्राओं ने प्रभा अत्रे द्वारा कंपोज की गई बंदिशें भी प्रस्तुत की।


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