रासायनिक खाद और कीटनाशक से किसानों का छूट नहीं रहा मोह

रासायनिक खाद और कीटनाशक से किसानों का छूट नहीं रहा मोह


इंदौर। हरित क्रांति के नारे के साथ ही देश में खाद्यान्न का उत्पादन तो बढ़ गया, लेकिन इसके साथ ही देश के किसानों को रासायनिक पेस्टीसाइड (कीटनाशक) और रासायनिक खाद का ऐसा चस्का लगा कि वे इसके मोहपाश से अब तक दूर नहीं हो पाए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि वर्ष 2022 तक केमिकल फर्टिलाइजर का उपयोग आधा हो जाए। मालवा-निमाड़ की ही बात करें तो यहां हर साल पेस्टीसाइड और रासायनिक खादों का इस्तेमाल कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है।


मप्र राज्य सहकारी विपणन संघ के आंकड़ों के मुताबिक इंदौर संभाग के आठ जिलों में इस साल छह लाख 34 हजार 904 मीट्रिक टन रासायनिक खाद की बिक्री हुई है, जबकि पिछले साल सिर्फ पांच लाख 96 हजार 523 मीट्रिक टन केमिकल फर्टिलाइजर बिका था। इस तरह पिछले वर्ष की तुलना में यह 38 हजार 381 मीट्रिक टन अधिक है, जबकि इसमें मार्च के आंकड़े जुड़ना बाकी है। मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से में सोयाबीन, कपास और मिर्च की फसलें होती हैं। इनके अलावा टमाटर, गोभी, भिंडी, लौकी जैसी सब्जियों की खेती भी बड़े पैमाने पर होती है। इन सबमें रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल अंधाधुंध तरीके से हो रहा है। इसी तरह रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भी किसान अनियंत्रित तरीके से कर रहे हैं। फसलों के लिए गोबर, चारे से बनी कंपोस्ट खाद फायदेमंद है, लेकिन अब भी अधिकांश किसान सोना उगलने वाले गोबर धन से परहेज कर रहे हैं। वे अपने यहां होने वाले गोबर और खेत के कचरे को सड़ाकर कंपोस्ट खाद बनाने की जहमत नहीं उठाना चाहते।


 

पशुपालन पर नहीं किसानों का ध्यान


कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि गोबर को जब तक सड़ाकर कंपोस्ट न बनाया जाए, तब तक इसकी खाद किसी काम की नहीं। आमतौर पर कई किसान कच्चे गोबर की खाद ही खेत में डाल देते हैं। वे समझते हैं कि इस खाद से उनकी फसलों को फायदा होगा लेकिन कच्चे गोबर में कीड़े होते हैं। जब ऐसी अधपकी खाद खेत में डाली जाती है तो इसके कीड़े फसलों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। प्रदेश के किसी भी गांव में चले जाएं, आपको यह दृश्य आम नजर आएंगे कि गांव के बाहर घूरे का ढेर पड़ा है, लेकिन किसान इसे सड़ाकर खाद बनाने के प्रयास नहीं करते। कई बार इस कच्चे घूरे को ही खेत में खाद के रूप में डाल दिया जाता है। गोबर की खाद कम होने का बड़ा कारण यह है कि किसानों ने ही पशुपालन पर ध्यान देना छोड़ दिया है। खेती का रकबा और चारागाह घटने का प्रभाव पशुधन पर भी पड़ा है।


 

गोबर की खाद से केमिकल फर्टिलाइजर का 30-40 फीसदी उपयोग तो कम किया जा सकता है, लेकिन सौ फीसदी उसी पर निर्भरता नहीं हो सकती। इस समय उच्च उत्पादकता वाली फसलों और पौधों की खुराक के लिए केमिकल फर्टिलाइजर डालना जरूरी हो जाता है। रासायनिक खाद के साथ किसानों को कल्चर भी दिया जाता है, लेकिन वे इसकी अहमियत नहीं समझते। यह भी होता है कि गोबर ठीक से सड़ा ही नहीं और खेतों में डाल दिया जाता है। इससे मिट्टी और फसल में दीमक और अन्य रोग होने लगते हैं।


सुनील सक्सेना, राज्य विपणन प्रबंधक, इफको


स्वॉइल हेल्थ कार्ड से किसान को उसकी कृषि भूमि की टेस्ट वैल्यू पता चल जाती है। इसके बाद भी वे रासायनिक खादों का अनियंत्रित इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर किसान यूरिया को ही खाद मानते हैं, वे पोटाश और सल्फर पर ध्यान ही नहीं देते। जमीन में गोबर की पकी हुई खाद न होने से जमीन में फसल के लिए उपयोगी ऑर्गनिक कार्बन कम होता जा रहा है। किसानों की बड़ी गलती यह है कि वे कृषि वैज्ञानिकों और कृषि अधिकारियों का कहना नहीं मानते। कई किसानों की खेती खाद और पेस्टीसाइड के डीलरों के भरोसे चल रही है। किसान उनसे उधारी पर माल लाता है, इसलिए डीलर दुकानदार के पास जो माल होता है, वही वह देता है।


डॉ. अशोक कुमार शर्मा, एग्रोनॉमिस्ट, शासकीय कृषि महाविद्यालय


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